Sunday, December 21, 2025
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उत्तराखंड की लोक बोलियों को डिजिटल पहचान: भाषिणी AI मॉडल से गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी को मिलेगी नई ताकत

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देहरादून से एक अहम पहल की जानकारी सामने आई है। भारत सरकार के राष्ट्रीय भाषा प्रौद्योगिकी मिशन ‘भाषिणी’ के तहत उत्तराखंड की प्रमुख लोक बोलियों—गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी—को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) आधारित डिजिटल पहचान दी जा रही है। इस पहल का उद्देश्य डिजिटल प्लेटफॉर्म पर भाषा से जुड़ी बाधाओं को समाप्त करना और आम लोगों के लिए तकनीक को अधिक सुलभ बनाना है।

नेशनल लैंग्वेज ट्रांसलेशन मिशन ‘भाषिणी’ देश की भाषाई विविधता को तकनीकी दुनिया से जोड़ने की दिशा में काम कर रहा है। इसके अंतर्गत भारतीय भाषाओं और क्षेत्रीय बोलियों के लिए आधुनिक AI मॉडल विकसित किए जा रहे हैं, ताकि डिजिटल सेवाओं तक पहुंच भाषा के कारण सीमित न रहे।

फिलहाल भाषिणी द्वारा देश की 22 आधिकारिक भाषाओं के लिए AI मॉडल तैयार किए जा चुके हैं। अब इसी क्रम में राज्यों की स्थानीय बोलियों को भी मिशन से जोड़ा जा रहा है। उत्तराखंड की गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी बोलियों पर विशेष रूप से काम शुरू कर दिया गया है।

इस परियोजना के तहत भाषिणी ऑटोमेटिक स्पीच रिकॉग्निशन, न्यूरल मशीन ट्रांसलेशन, टेक्स्ट-टू-स्पीच और ऑप्टिकल कैरेक्टर रिकॉग्निशन जैसी अत्याधुनिक तकनीकों पर कार्य कर रही है। इन तकनीकों के माध्यम से बोली गई भाषा को टेक्स्ट में बदलना, एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करना और लिखे गए शब्दों को आवाज में परिवर्तित करना संभव होगा।

उत्तराखंड सरकार भी इस पहल को लेकर सक्रिय है। सूचना प्रौद्योगिकी सचिव नितेश झा ने बताया कि राज्य की सरकारी वेबसाइटों पर गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी बोलियों को शामिल करने की दिशा में काम किया जा रहा है। इससे आम नागरिक अपनी मातृभाषा में सरकारी योजनाओं और सेवाओं से जुड़ी जानकारी प्राप्त कर सकेंगे, जिससे खासकर पहाड़ी क्षेत्रों में डिजिटल पहुंच आसान होगी।

इसके साथ ही राज्य में वॉयस आधारित सिस्टम पर भी काम किया जा रहा है। भाषिणी के वरिष्ठ प्रबंधक अजय सिंह के अनुसार, इस सुविधा के जरिए लोग बोलकर अपनी स्थानीय बोली में ही डिजिटल प्लेटफॉर्म से जानकारी ले सकेंगे। यह व्यवस्था उन लोगों के लिए खास तौर पर लाभकारी होगी, जो पढ़ना-लिखना नहीं जानते या जिन्हें डिजिटल तकनीक की सीमित जानकारी है।

कुल मिलाकर, भाषिणी की यह पहल उत्तराखंड की लोक बोलियों को न केवल डिजिटल पहचान दे रही है, बल्कि भाषा, संस्कृति और तकनीक के बीच की दूरी को भी कम कर रही है। इसे राज्य के लिए एक ऐतिहासिक और दूरदर्शी कदम माना जा रहा है।

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